बस्तर में पोलिंग बढ़ने के बजाय इस बार पिछले चुनाव से कुछ कम…इसने चौंकाया

- न्यूज एनालिसिस – नवाब फाजिल
बस्तर लोकसभा क्षेत्र की छह विधानसभा के अधिकांश हिस्सों में मतदान दोपहर 3 बजे बंद हो गया। दो विधानसभा में शाम 5 बजे खत्म हुआ। बीजापुर में धमाके में एक जवान की शहादत हो गई, शेष मोटे तौर पर जगह शांति रही। जहां तक मतदान का सवाल है, रात 9 बजे तक की खबर के मुताबिक 64 फीसदी के आसपास वोट पड़े हैं। जबकि 2019 के चुनाव में 66.26 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। बस्तर में मतदान हर बार बढ़ा। इस बार भी बढ़ने की उम्मीद थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। देर रात आंकड़े बदल भी जाएं तो यह अधिकतम 66 फीसदी के आसपास ही रहेंगे। अर्थात कम या बराबर। राजनैतिक विद्वान वोटिंग के इस पैटर्न से चौंके हैं। उनका कहना है कि ऐसा तीन-चार परिस्थितियों में ही संभव हैः-
- लोगों के पास मतदान के लिए कोई खास मुद्दा नहीं हो, यानी रूटीन मुद्दों पर चुनाव हो…
- किसी तरह की लहर या विपरीत लहर का असर नहीं हो या फिर नहीं के बराबर हो तब…
- उम्मीदवारों को लेकर वोटरों में अलग से संवेदना, रुचि अथवा अरुचि दोनों नहीं रहे तब…
- दोनों प्रमुख दलों में चुनाव या वोटर निकालने में रुचि कम दिखे या दूसरे अवरोध हों, तब…
- ये सारी बातें गलत निकलें, सारे वोट झाराझार एक तरफ गिरे हों और दूसरी ओर कम, तब…
छत्तीसगढ़ की बस्तर लोकसभा सीट पर पिछले चार चुनावों (उनमें एक उपचुनाव) में से तीन बार भाजपा जीती, एक बार कांग्रेस। इन चार चुनावों में वोटिंग पैटर्न और नतीजों की तुलना तो नहीं कर सकते, लेकिन कोई न कोई इशारा जरूर निकलता है। बस्तर में 2008 में 47.33 फीसदी वोट पड़े और भाजपा के बलिराम कश्यप 1 लाख वोटों से जीते। इसके बाद 2011 में उपचुनाव हुआ, जिसमें दिनेश कश्यप ने कवासी लखमा को 89 हजार वोटों से हराया। तब मतदान पिछले चुनाव से थोड़ा बढ़कर 50.38 फीसदी हुआ। लेकिन 2014 में मतदान उछलकर 59.32 प्रतिशत पर पहुंच गया। इसके नतीजे भी उसी तरह के रहे और दिनेश कश्यप इस दफा 1.24 लाख वोटों से शंकर सोढी़ से जीते। इस सीट पर भाजपा की बादशाहत 2019 में टूटी, जब दीपक बैज अपेक्षाकृत कम फासले यानी 39 हजार वोटों से जीते। हालांकि मतदान पिछले चुनाव से बढ़कर 66.26 पर पहुंच गया। राजनैतिक विशेषज्ञों के मुताबिक इससे यह स्पष्ट होता है कि बस्तर का वोटिंग पैटर्न बढ़ते क्रम में था, लेकिन जीत-हार फिक्स नहीं रही। हर बार वोट बढ़े, लेकिन भाजपा तीन बार जीती तो एक बार सीट कांग्रेस की झोली में भी गई। इस बार भाजपा से महेश कश्यप और कांग्रेस से कवासी लखमा उम्मीदवार है। ऐसा पहली बार हुआ है कि मतदान पिछले साल से बढ़ता हुआ नहीं दिख रहा है। इसके बावजूद यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि वोटिंग पैटर्न अचानक बदलने से फैसला किसके पक्ष में जाएगा। हालांकि राजनैतिक दतों ने इस तथ्य की व्याख्या अपने-अपने पक्ष में करने की तैयारी शुरू कर दी है।
वोटर तो बिलकुल खामोश थे, कार्यकर्ताओं की कम रुचि की बातें भी आ रही थीं…
बस्तर के चुनाव में नक्सल दबाव का बीजापुर और सुकमा में ही असर दिखा, वह भी बहुत कम। शेष जगह घने जंगलों में दस-बीस बूथ को छोड़कर बाकी में हालात सामान्य थे। बीजापुर में धमाके में जवान की शहादत हुई, उस घटना के अलावा शेष जगह लगभग शांति रही। इसलिए नक्सल असर को नगण्य मान सकते हैं। विधानसभा चुनाव में बस्तर में वोटर खामोश नहीं थे। आदिवासी और क्रिश्चियन लोगों में अंतिम संस्कार का विवाद रायपुर तक पहुंच तो रहा था। बस्तर की खदानें और कारखानों के निजीकरण की कथित सरकारी कोशिशों के खिलाफ भी लोग आए दिन सड़कों पर उतर रहे थे। विधानसभा चुनाव में बस्तर ने कांग्रेस विरोधी नतीजे दिए। 12 में से 8 सीटें कांग्रेस हार गई। लेकिन उसके बाद से लोकसभा चुनाव तक वोटर खामोश नजर आया। दूसरा, कार्यकर्ताओं के अनमनेपन को लेकर यह बातें आ रही हैं कि दोनों ही पार्टी के प्रत्याशी उनके कई नेताओं को स्वीकार्य नहीं थे। यह बात चुनाव के समय भी उठती रही। मतदान कम होने को इसी का असर माना जा रहा है। तीसरा, पूरे चुनाव के दौरान कांग्रेस से कई लोग टूटकर भाजपा में गए। रायपुर से नेता तो बयान देते रहते हैं कि कोई आए-जाए, फर्क नहीं पड़ता। लेकिन हकीकत ये है कि इस तरह के आने-जाने से जमीना कार्यकर्ताओं को थोड़ा फर्क पड़ जाता है, और बस्तर में ऐसा ही हुआ। लेकिन, भाजपा के ही बड़े नेताओं का मानना है कि पार्टी को इसका जितना फायदा उठाना चाहिए था, उतना बिलकुल नहीं उठा सके। इसलिए सब तरह उदासीनता सी स्थिति रही। शायद इसी का नतीजा है कि बस्तर में मतदान इस बार बढ़ नहीं सका।